उभरता सारंगी वादक मुकेश कुमार राणा - Sarangi Player Mukesh Kumar Rana, इसमें सारंगी वादक मुकेश राणा के जीवन और उनके संघर्ष के बारे में बताया है।
कहते हैं कि कलाकार बनाए नहीं जा सकते हैं बल्कि कहते हैं कि कलाकार बनाए नहीं जा सकते हैं बल्कि कलाकार अपनी कला के साथ पैदा होते हैं।
कला में रूचि तथा उसमे पारंगतता एक नैसर्गिक गुण होता है जिसका संवर्धन तो किया जा सकता है परन्तु उसे किसी में पैदा नहीं किया जा सकता है।
विरले ही होते हैं जिन्होंने अपनी रूचि के विरुद्ध कोई कार्य किया हो तथा उसमे सफलता पाई हो। अगर माना जाए तो कला एक इबादत है और अगर कला का रूप संगीत हो तो फिर वह साक्षात देवी सरस्वती की वंदना होती है।
मुफलिसी तथा उपेक्षा दो ऐसी चीखे होती है जो किसी भी इंसान को तोड़ कर रख देती है। यह एक कटु सत्य है कि जब तक कोई सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ नहीं जाता है तब तक हर कोई किसी न किसी बहाने से हतोत्साहित करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाना अपना परम कर्तव्य समझता है।
बहुत कम लोग ऐसे होते है जिन्हें बड़ी आसानी से सफलता मिल जाती है। सफलता के लिए पूर्ण लगन के साथ दिन रात मेहनत करनी पड़ती है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ जूझना पड़ता है।
ऐसी ही एक जुझारू शख़्सियत का नाम है सारंगी वादक मुकेश कुमार राणा। मुकेश राणा कांवट कस्बे से पाँच किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से गाँव हरजनपुरा के निवासी है।
मुकेश सारंगी वादक घराने से ताल्लुक रखते हैं। इनके पड़दादा उस्ताद सुल्तान खान साहब अपने ज़माने के एक प्रख्यात सारंगी वादक थे फिर उस परम्परा को इनके दादा उस्ताद जिया खान साहब ने और बुलंदियों तक पहुँचाया।
मुकेश के पिता बाबू खान ने सारंगी की जगह तबले का दामन थाम कर एक प्रसिद्ध तबला नवाज की उपाधि पाई। इस प्रकार मुकेश का पूरा खानदान संगीत से जुड़ा हुआ घराना रहा है जिसने संगीत की दुनिया में अपना अनूठा योगदान दिया है।
मुकेश ने संगीत का सम्पूर्ण ज्ञान अपने पिता से प्राप्त किया है। बारह-तेरह वर्ष की आयु तक मुकेश सारंगी से शास्त्रीय संगीत की वो धुनें बजाने में पारंगत हो गए थे जिनमें लोग युवावस्था तक भी पारंगत नहीं हो पाते हैं।
मुकेश अपने पिता के साथ तबले पर सारंगी की संगत बखूबी किया करते थे। उस उम्र में इनकी उपलब्धि की गवाही वह प्रमाण पत्र देता है जो इन्हें 2006 में आयोजित “यामाहा जी5 दैनिक भास्कर वोइस ऑफ राजस्थान सेकंड” में भाग लेने पर मिला था।
मुकेश पर परेशानियों का पहाड़ तब टूट पड़ा जब वर्ष 2007 के लगभग इनके पिता तबला नवाज उस्ताद बाबू खान तथा माता शरीफन दोनों की ही अकाल मृत्यु हो गई। नाबालिक उम्र में स्वयं तथा दो छोटे भाई बहन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी मुकेश पर आ गई।
इस आकस्मिक परिस्थिति की वजह से मुकेश सारंगी तथा संगीत से दूर होते चले गए तथा हिम्मत के साथ परिस्थितियों का सामना करने लगे।
जब इंसान में कठिन परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत होती है तो फिर ये कठिनाइयाँ धीरे-धीरे दम तोडना शुरू कर देती हैं। कठिन परिस्थितियों में या तो इंसान खुद टूट जाता है या फिर कठिनता समाप्त हो जाती है।
मुकेश की हिम्मत तथा लगन के सामने प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी धीरे-धीरे अनुकूल बनती चली गई। मुकेश ने अपने भाई बहनों का पालन पोषण, उनकी शिक्षा आदि की जिम्मेदारी एक पिता की भाँति उठाई।
मुकेश ने न केवल देनदारों को अपने पिता के समय का कर्ज चुकाया बल्कि अपनी तथा अपनी बहन की शादी भी संपन्न करवाई। रहने के लिए गाँव हरजनपुरा में एक पक्का मकान भी बनवा लिया।
घरेलू परिस्थितियों से मुक्त होकर इन्होंने फिर से सारंगी की तरफ रुख किया। इन्होंने अपने पड़दादा की जीर्ण शीर्ण पड़ी सारंगी, जिसे वे दिल्ली से लेकर आए थे, की मरम्मत करवाई तथा पुनः उस पर रियाज करना शुरू किया।
मुकेश नाम से हिन्दू प्रतीत होते है परन्तु ये मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखते हैं। इनका दिल तथा इनका घर दोनों धर्मनिरपेक्षता का जीवंत उदाहरण है। इनके घर में नमाज भी अदा की जाती है तथा संतोषी माता की पूजा भी की जाती है।
ये स्वयं दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं तथा इनकी पत्नी रजिया संतोषी माता की पूजा करती है। इन्होंने मंदिर मस्जिद से ऊपर उठकर इंसानियत तथा संगीत को ही अपना खुदा माना है।
मुकेश को बचपन से सारंगी का बहुत शौक रहा है तथा सारंगी उनकी आत्मा में बसती है। आज मुकेश ने सारंगी में पुनः वही स्थान पा लिया है जो उन्हें उनके पिताजी के समय प्राप्त था।
मुकेश सारंगी को सोलो तथा संगत दोनों में बखूबी बजाते हैं। मुकेश मुख्य रूप से शास्त्रीय तथा उप शास्त्रीय संगीत के विशेषज्ञ है।
ये शास्त्रीय संगीत की रागों जैसे राग यमन, भोपाली, चन्द्रकोश, मालकोश, दरबारी, पूरिया धनाश्री, मारवा, बागेश्री, तिलक कामोद, भैरवी, अहीर भैरवी, पहाड़ी, दुर्गा, सारंग, पीलू आदि को सम्पूर्ण नियंत्रण के साथ बजाते तथा गाते हैं।
मुकेश उच्चकोटि के भजन, गजल तथा लोक गीत गायक भी हैं। इनके भजन तथा गजल भी इनकी सारंगी की तरह मुख्यतया शास्त्रीय संगीत की धुनों पर आधारित हैं। ये मुख्यतया गुलाम अली की गजल गाना अधिक पसंद करते हैं।
लोक संगीत की स्पष्ट छाप इनकी सारंगी की धुनों के साथ-साथ इनके गायन पर भी परिलक्षित होती है। ये उच्च कोटि के मांड गायक भी हैं।
मुकेश बहुत अच्छे हारमोनियम वादक भी हैं। हारमोनियम पर इनके दोनों हाथों की उंगलियाँ इतनी कुशलता से नाचती है कि देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है।
अभी हाल ही में इन्हें राजस्थान युवा बोर्ड तथा राजस्थान राज्य भारत स्काउट्स व गाइड्स द्वारा आयोजित जिला स्तरीय युवा सांस्कृतिक प्रतिभा खोज महोत्सव में सारंगी वाद्य पर जिला कला रत्न की ट्राफी मिली है।
इसके पश्चात जयपुर सुबोध कॉलेज में राजस्थान युवा बोर्ड द्वारा आयोजित संभाग स्तरीय युवा सांस्कृतिक प्रतिभा खोज महोत्सव में भी सारंगी में प्रथम स्थान प्राप्त किया है।
इन्हें एसटी आयोग के उपाध्यक्ष जीतेंद्र मीणा ने सम्मानित भी किया है। सुबोध कॉलेज के इस कार्यक्रम में इन्होंने सभी अतिथियों के सम्मुख सारंगी की मधुर धुनों को प्रस्तुत किया था।
गौरतलब है कि राजस्थान युवा बोर्ड और राजस्थान सरकार की ओर से युवा कलाकारों की खोज के लिए जयपुर में दुर्गापुरा स्थित कृषि प्रबंधन संस्थान में 8 और 9 जनवरी को राज्य स्तरीय युवा सांस्कृतिक प्रतिभा खोज महोत्सव प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था उसमे भी मुकेश कुमार राणा ने सारंगी प्रतियोगिता में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सारंगी एक परंपरागत वाद्य है तथा यह युवाओं की पसंद में भी नहीं आती है इसलिए सारंगी वादकों के लिए इस परंपरागत वाद्य को बजाना मुश्किल होता जा रहा है।
आय का जरिया भी इसमें बिलकुल सीमित ही है शायद इसलिए मुकेश को अपने घर में भी सारंगी के लिए अपेक्षाकृत प्रेम तथा सहयोग नहीं मिल पा रहा है। वो एक कहावत है कि भूखे पेट तो भजन भी नहीं होते हैं, कई बार सत्य के करीब नजर आती है।
लेखक
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
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