कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा त्योहार हेरथ - Kashmiri Panditon Ka Tyohar Herath

कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा त्योहार हेरथ - Kashmiri Panditon Ka Tyohar Herath, इसमें कश्मीर की शिवरात्रि यानी हेरथ के त्योहार के बारे में बताया गया है।


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कश्मीर में महाशिवरात्रि या शिवरात्रि को “हेरथ” के नाम से जाना जाता है। यह कश्मीरियों का सबसे बड़ा तथा प्रमुख त्यौहार है।

यह त्यौहार फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की द्वादशी से शुरू होकर पाँच छह दिनों तक बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

कश्मीरी पंडित कैसे मनाते हैं हेरथ?, Kashmiri Pandit Kaise Manate Hain Herath?


फाल्गुन का महिना शुरू होते ही सभी लोग इस त्यौहार की तैयारियों में जुट जाते हैं। जिस प्रकार हमारे घरों में दिवाली के समय सफाई की जाती है वैसे ही कश्मीर में सभी कश्मीरी महाशिवरात्रि के समय अपने घरों की सफाई करते हैं।

घर का कोना-कोना साफ़ कर सारा कूड़ा करकट बाहर निकाला जाता है। भगवान का निवास, जिसे “ठाकुर कुठ” कहा जाता है, को सजाया जाता है। नए कपडे सिलवाए जाते हैं।

कश्मीर में शिवरात्रि के समय अखरोट का बड़ा महत्व है इसलिए अखरोट को पानी में भीगने के लिए रख दिया जाता है।

हेरथ के दिन सभी बच्चे अपने परिजनों के साथ मिलकर “हार” नामक खेल खेला करते हैं। हार को सीपियों की मदद से खेला जाता था।

कश्मीरी परंपरा के आदि देव भगवान शिव हैं। कश्मीरी पंडितों में यह मान्यता रही है कि हर पंडित लड़की शिव की ब्याहता है इस प्रकार शिव उनके जंवाई यानी जामाता है।

शिवरात्रि के त्यौहार के समय भी शिव की पूजा और सत्कार एक जामाता के रूप में किया जाता है। कश्मीरी विवाह समारोहों में भी वर और वधू को शिव और शक्ति मान कर उनकी पूजा की जाती है।

कश्मीर में फाल्गुन महीने की दशमी को “द्यारा दहम” के नाम से जाना जाता है। इस दिन घर की बहू अपने मायके जाकर अपने बाल धोती है।

फिर कांगड़ी, नमक, कश्मीरी रोटियाँ आदि शगुन में लेकर वापस अपने ससुराल आती है। कश्मीर में द्वादशी के दिन को ‘वागुर’ नाम से जाना जाता है।


वागुर के दिन मिट्टी के घड़े में झेलम, जिसे वितस्ता नदी के नाम से भी जाना जाता है, का पानी भरा जाता था और अगर झेलम का पानी संभव नहीं हो तो किसी भी नदी के यारबल (पनघट) पर जाकर उसमें पानी भरा जाता था।

मिट्टी के घड़े का बहुत महत्व होता है क्योंकि इसे शिव और पार्वती का रूप माना जाता है। शिव पार्वती के घड़े के अतिरिक्त ग्यारह घड़े और भरे जाते थे जो कि सभी दिशाओं और कोणों के प्रतीक माने जाते थे।

इसके बाद शिवजी को ठाकुर कुठ में स्थापित किया जाता है। इनके लिए घास से बने आभूषण तैयार किए जाते हैं जिन्हें “वुसिर” कहते हैं। शिवरात्रि की लगभग पूरी रात ही शिव और पार्वती की स्तुति की जाती है।

सभी कश्मीरी परिवारों के पंडित उनके घर पर वागुर के दिन से शिवरात्रि के दिन तक रहकर पूजा अर्चना करवाते थे। त्यौहार के आखिरी दिन जामाता शिव को पार्वती के साथ विदा किया जाता है जिसके लिए घड़े के जल का विसर्जन किया जाता है।

विसर्जन कर जब घर का मुखिया घर लौटता है तब वह अपने कंधे पर घड़ा उठा कर घर का दरवाजा खटखटाता है। घर के अन्दर से उसकी पत्नी और बच्चे पूछते हैं कि “कौन है” (ठुक-ठुक, कुस छुव)। तब जवाब दिया जाता है कि “राम की बिल्ली” (राम ब्रोर)।

फिर अन्दर से पूछा जाता है कि “क्या लेकर आए” (क्या हेथ), तब जवाब दिया जाता है कि “अन्न-धन, स्वस्थ जीवन, मजबूत घुटने, विद्या, कारोबार और धन संपदा लाए हैं” (अन्न हेथ, धन हेथ, ओर ज़ू, दोरकुठ, विद्या, कारबार, ते धन-संपदा हेथ)। इस संवाद के पश्चात दरवाजा खोला जाता है तथा आगंतुकों का स्वागत किया जाता है।

कश्मीरी पंडितों में एक मान्यता यह भी है कि शिवरात्रि के समय भगवान शिव के आशीर्वाद से कश्मीर में बर्फबारी होती है।

एक दूसरे नजरिये से देखा जाए तो यह बर्फबारी धान और सेब की फसलों के लिए आवश्यक भी है इसलिए इस समय बर्फबारी को भगवान शंकर का आशीर्वाद समझा जाता है।

कश्मीर में शिवरात्रि के समय बर्फबारी की कहानी, Kashmir Me Shivratri Ke Samay Barfbari Ki Kahani


कश्मीर में शिवरात्रि के समय बर्फबारी को लेकर एक कहानी भी प्रचलन में है। इस कहानी के अनुसार लगभग दो से ढाई सौ वर्ष पूर्व कश्मीर में में अफगानों का शासन था।

कश्मीरी पंडितों की शिवरात्रि पर बर्फबारी की मान्यता को तोड़ने के लिए अफगान शासक ने यह एलान किया कि इस साल कश्मीरी शरद ऋतु के बजाए ग्रीष्म ऋतु में यह त्यौहार मनाएँगे ताकि पता चले कि शिवरात्रि पर बर्फ गिरती है या नहीं।

ग्रीष्म ऋतु में बर्फबारी नहीं होती है अतः इस प्रकार के एलान का मकसद कश्मीरियों कि आस्था को जाँच कर उसे झूठा साबित करना था।

अफगान बड़े क्रूर थे अतः कश्मीरी पंडितों को यह आदेश मानकर गर्मी के मौसम में शिवरात्रि मनानी पड़ी अर्थात शिव की पूजा करनी पड़ी।

कहा जाता है कि उस वर्ष जुलाई के महीने में बर्फबारी हुई जिसकी वजह से स्थानीय मुसलमान इतने अधिक प्रभावित हुए कि शिवरात्रि के अगले दिन वे पंडितों के घर सलाम करने पहुँचे।

उस दिन से लेकर आज तक शिवरात्रि के अगले दिन को “सलाम” ही कहा जाता है। इस दिन लोग अपने आस पडौस तथा रिश्तेदारी में जाकर दुआ सलाम कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।

कश्मीरी विस्थापित नई पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं?, Kashmiri Visthapit Nai Pidhi Ke Baare Me Kya Sochte Hain?


जयपुर में रह रहे कश्मीरी पंडित, प्रोफेसर चन्द्र शेखर भान बताते हैं कि अब अधिकतर कश्मीरी अपनी परंपरा को भूलने लगे हैं तथा अधिकतर लोगों को तो अब परंपरागत ढंग से पूजा करना भी नहीं आता।

पहले सब एक सम्मिलित परिवार में एक जगह इकट्ठा होकर पूजा करते थे परन्तु जब से कश्मीर छूटा है तब से सब भाई बंधू एक जगह ना होकर छितर गए हैं।

पहले बड़े-बुज़ुर्गों के साथ देखते-देखते पूजा करना सीख लेते थे परन्तु अब मातृभूमि के साथ-साथ संस्कार भी विलुप्त हो गए हैं।

जो पीढ़ी विस्थापन के बाद पैदा हुई है उसे तो अपनी परम्पराओं का ज्ञान भी नहीं है तथा वो पीढ़ी अब उन्हीं संस्कारों को अपना रही है जहाँ वो रह रही है।

मातृभूमि से जबरन बेदखल होना बड़ा दुखदाई होता है, जिन्होंने अपना बचपन कश्मीर की जन्नती वादियों में गुजारा है उनके लिए यह घाव एक नासूर का रूप ले चुका है।

हम बस यहीं दुआ कर सकते हैं कि सभी कश्मीरी पंडित जल्द से जल्द अपनी भूमि पर जाकर फिर उसी तरह हेरथ मनाये जिस प्रकार वो कश्मीर छूटने से पहले मनाते थे।

कश्मीरी पंडित ऐसे मनाते हैं हेरथ की फोटो, Kashmiri Pandit Aise Manate Hain Herath Ki Photos


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लेखक
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
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