हल्दीघाटी के योद्धा महाराणा प्रताप - Haldighati Ke Yoddha Maharana Pratap, इसमें हल्दीघाटी युद्ध के नायक महाराणा प्रताप के बारे में बताया गया है।
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भारतवर्ष में राजा तो बहुत हुए हैं लेकिन कुछ राजा ऐसे भी हुए हैं जिनका नाम सामने आते ही मन श्रद्धा से भर जाता है। ऐसे ही एक राजा का नाम है महाराणा प्रताप।
महाराणा प्रताप का नाम सुनते ही एक ऐसे वीर योद्धा की छवि दिमाग में उभरती है जिसने अपनी स्वतंत्रता के लिए गुलामी के राजसी जीवन की जगह पहाड़ों और जंगल में आम नागरिकों के साथ सामान्य जीवन जीना मंजूर किया।
महाराणा प्रताप का नाम सुनते ही वो स्वाभिमानी राजा दिमाग में आता है जिसका सम्पूर्ण जीवन महलों के सुख और वैभव के बजाय मुगल सेना से लगातार संघर्ष करते हुए बीता।
महाराणा प्रताप का नाम सुनते ही वो लाचार पिता नजर आता है जिसके पुत्र कुँवर अमर सिंह के हाथ से बिलाव घास की रोटी लेकर चला गया था और वो कुछ नहीं कर पाए।
आपको पता ही होगा कि बहुत बार महाराणा प्रताप के परिवार को जंगल में घास की रोटी खाकर गुजारा करना पड़ा था। जिस महाराणा के परिवार को स्थाई राजसी जीवन बिताना था उसे जंगल-जंगल भटकना पड़ रहा था।
इन परिस्थितियों में मन तो महाराणा प्रताप का भी बड़ा दुखी हुआ होगा लेकिन पता नहीं ऐसी कौनसी शक्ति थी जिसने उन्हें कभी भी उनके लक्ष्य यानी मेवाड़ की आजादी से कभी भटकने नहीं दिया।
लाख कठिनाइयों और परेशानियों के बावजूद भी वे मेवाड़ की आजादी के प्रति इतना अधिक समर्पित थे कि किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहते थे।
महाराणा प्रताप का नाम सामने आते ही सबसे पहले दिमाग में हल्दीघाटी की हल्दी जैसी पवित्र माटी का खयाल आता है जिसे लोग आज भी बहादुरी का प्रतीक मानकर अपने माथे से लगाते हैं।
आज हम वीर शिरोमणि महायोद्धा महाराणा प्रताप के बारे में बात करेंगे जिन्होंने अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया, तो आइए शुरू करते हैं।
महाराणा प्रताप का जन्म और बचपन, Maharana Pratap Ka Janm Aur Bachapan
महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत 1597 यानी 9 मई 1540 ईस्वी को कुंभलगढ़ के दुर्ग में झाली रानी के महल में हुआ था।
कुंभलगढ़ के दुर्ग में आप आज भी महाराणा प्रताप की जन्म स्थली को देख सकते हैं। यह जन्म स्थली बादल महल के पास ही स्थित झाली रानी के महल में है।
कुँवर प्रताप, महाराणा उदय सिंह के सबसे बड़े पुत्र (ज्येष्ठ पुत्र) थे। इनकी माता का नाम जयवंता बाई (जीवंत कँवर) था। जयवंता बाई अखेराज सोनगरा की पुत्री थी।
महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय में बीता था, चूँकि भील अपने बच्चों को कीका कहकर पुकारते हैं इसलिए महाराणा प्रताप को भी बचपन में कीका नाम से भी पुकारा जाता था।
इन्हें नीति और धार्मिक विषयों के साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र, सैन्य संचालन, युद्ध की व्यूह रचना आदि की शिक्षा दी गई थी।
महाराणा प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ के दुर्ग के साथ-साथ चित्तौड़ के दुर्ग और गोगुन्दा में बीता था। अपनी युवावस्था में ही कुँवर प्रताप सैन्य अभियानों में भाग लेने लग गए थे।
अपनी युवावस्था में ही कुँवर प्रताप ने वागड़ और गोड़वाड़ क्षेत्र पर अधिकार करके अपनी सैन्य रणनीति और युद्ध कौशल का परिचय दे दिया था।
आपको पता ही होगा कि प्राचीन राजपरिवारों में किसी भी राजा का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र यानी सबसे बड़ा पुत्र ही होता था।
महाराणा उदय सिंह ने इस परिपाटी को पलट कर अपनी सबसे पसंदीदा रानी धीरबाई भटियानी के प्रभाव में आकर कुँवर प्रताप की जगह कुँवर जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इस घटना के बाद महाराणा प्रताप चित्तौड़ के गढ़ से निकल कर नीचे तलहटी में रहने लग गए थे। तलहटी में रहने के कारण इनका मेवाड़ की जनता से निकट संपर्क स्थापित हुआ।
महाराणा प्रताप का राजतिलक, Maharana Pratap Ka Rajtilak
जब 1568 ईस्वी में चित्तौड़ पर मुगल बादशाह अकबर का अधिकार हो गया तब महाराणा उदय सिंह ने अपने परिवार के साथ चित्तौड़ छोड़ दिया और गोगुन्दा आकर रहने लग गए।
गोगुन्दा में धोलिया पहाड़ की तलहटी में महाराणा उदय सिंह के निवास स्थान के प्राचीन अवशेष आज भी नजर आते हैं।
विक्रम संवत 1629 (28 फरवरी 1572) फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को होली के दिन महाराणा उदय सिंह का देहावसान हो गया।
मेवाड़ राजपरिवार की परंपरा के अनुसार सबसे बड़ा पुत्र दाह संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सकता था लेकिन कुँवर प्रताप इस परिपाटी को तोड़कर महाराणा उदय सिंह के अंतिम संस्कार में शामिल हुए।
यह एक ऐसा मौका था जब महाराणा प्रताप महल में नहीं थे दूसरा कुँवर जगमाल पहले से ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित था इसलिए कुँवर जगमाल ने इस अवसर का फायदा उठाया और राजगद्दी पर बैठ गया।
बाद में जब मेवाड़ के सभी सामंतों को ग्वालियर के राजा राम सिंह तँवर और सोनगरा मान सिंह के माध्यम से इस बात का पता चला तो उन्होंने इस पर आपत्ति उठाई।
सभी सामंतों ने आपस में विचार विमर्श करके प्रचलित परिपाटी के अनुसार महाराणा उदय सिंह के सबसे बड़े पुत्र कुँवर प्रताप को योग्य मानते हुए महाराणा स्वीकार किया।
सलूम्बर के रावत कृष्णदास और देवगढ़ के रावत सांगा ने सभी सामंतों की सहमति से गोगुन्दा की महादेव बावड़ी पर कुँवर प्रताप को बैठाकर उनका राजतिलक किया। इस प्रकार 28 फरवरी 1572 ईस्वी को गोगुन्दा में महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक बने।
गोगुन्दा में आज भी वह महादेव बावड़ी मौजूद है जहां पर महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ था। इस बावड़ी के बगल में ही भगवान शंकर का वह मंदिर भी मौजूद है जहाँ पर महाराणा प्रताप पूजा अर्चना किया करते थे।
गोगुन्दा में राजतिलक होने के कुछ समय के बाद कुंभलगढ़ में राजकीय परंपरा के अनुसार महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप का दो बार राजतिलक हुआ।
महाराणा प्रताप के मेवाड़ की सत्ता को संभालने के बाद कुंभलगढ़ और गोगुन्दा दोनों मेवाड़ राज्य के मुख्य केंद्र बन गए।
महाराणा प्रताप के समय मेवाड़, Maharana Pratap Ke Samay Mewar
महाराणा उदय सिंह ने चित्तौड़ में रहते-रहते ही गिरवा की पहाड़ियों में उदयपुर नामक मेवाड़ की दूसरी राजधानी बनाने की शुरुआत कर दी थी।
महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर में मोती मगरी पर मोती महल का निर्माण करवाया था जिसके खंडहर आज भी मौजूद हैं। इसके साथ ही सिटी पैलेस का शुरुआती निर्माण भी करवाया।
जब 1568 ईस्वी के मुगल आक्रमण में सम्पूर्ण चित्तौड़ पर अकबर का अधिकार हो गया था तब महाराणा उदय सिंह अपने परिवार के साथ गोगुन्दा आ गए।
चित्तौड़ पर अधिकार करने के बाद अकबर ने सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार करने के प्रयास करने शुरू कर दिए।
इस प्रकार महाराणा प्रताप को विरासत में सीमित साधन, सीमित भूमि और सीमित जन शक्ति वाला राज्य मिला।
उस समय की परिस्थिति के अनुसार महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता और अपनी आजादी में से किसी एक को चुनना था। प्रताप ने संघर्ष करके स्वाधीनता प्राप्त करने का मार्ग चुना।
स्वतंत्रता की इस लड़ाई में मेवाड़ की राजधानियाँ कई बार बदली लेकिन महाराणा प्रताप ने अपने कुशल प्रशासन और सैन्य संचालन की वजह से राज्य की शासन और सैन्य व्यवस्था को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होने दिया।
महाराणा प्रताप ने जंगल में पहाड़ों के बीच गोगुन्दा, जावर, कमलनाथ आदि जगहों पर कई गुप्त ठिकाने बना रखे थे। इन गुप्त ठिकानों में एक ठिकाना महाराणा प्रताप का सबसे विश्वसनीय ठिकाना था।
ये जगह थी मायरा की गुफा। मायरा की गुफा महाराणा प्रताप का शस्त्रागार थी जिसमें महाराणा प्रताप अपनी सेना के अस्त्र शस्त्र रखा करते थे।
ये गुफा आज भी गोगुन्दा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ों के बीच घने जंगल में मौजूद है। मायरा की गुफा के साथ जावर माइंस और कमलनाथ महादेव के पहाड़ों में भी इनके शस्त्रागार थे।
महाराणा प्रताप के अस्त्र शस्त्र, Maharana Pratap Ke Astra Shastra
ऐसा माना जाता है कि महाराणा प्रताप युद्ध में 200 किलो से भी ज्यादा वजन उठाकर लड़ते थे। इनके भाले का वजन 81 किलो, कवच का वजन 72 किलो था।
भाले और कवच के अलावा इनके पास दो तलवारें, ढाल, कटार आदि भी हुआ करते थे।
हल्दीघाटी का युद्ध, Haldighati Ka Yuddh
मुगल बादशाह अकबर महाराणा प्रताप को बिना युद्ध किये अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए 1572 ईस्वी से 1573 ईस्वी यानी एक वर्ष तक बारी बारी से चार राजदूत भेजे।
1573 ईस्वी में आमेर का राजा मान सिंह भी अकबर का राजदूत बनकर महाराणा प्रताप को समझाने आया था।
उदयपुर में उदय सागर झील की पाल पर इन दोनों की मुलाकात हुई थी जिसमें महाराणा प्रताप ने मानसिंह को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए मना कर दिया।
इन सभी वार्ताओं के असफल होने का नतीजा हल्दीघाटी के युद्ध के रूप में निकला। इस युद्ध का भारत के इतिहास में एक विशेष स्थान है क्योंकि इस युद्ध ने मुगलों की मेवाड़ नीति को पूरी तरह से असफल कर दिया था।
हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में महाराणा प्रताप के नेतृत्व में मेवाड़ी सेना और मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना के बीच खमनौर गाँव में हल्दीघाटी नामक जगह पर हुआ।
इस युद्ध में दोनों तरफ के हजारों सैनिक मारे गए। युद्ध भूमि में रक्त का तालाब भर गया था जिस वजह से हल्दीघाटी की युद्ध भूमि को रक्त तलाई के नाम से जाना जाता है।
मोटे तौर पर देखें तो इस युद्ध में ना तो अकबर जीता और ना ही महाराणा प्रताप हारे। युद्ध से अकबर को कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि युद्ध के बाद भी महाराणा प्रताप और मेवाड़ उसकी अधीनता में नहीं आए।
युद्ध के परिणाम से अकबर इतना अधिक नाराज हुआ कि जब युद्ध के बाद में मानसिंह और आसफ खाँ अकबर के पास पहुँचे तो अकबर ने नाराज होकर उनकी ड्योढ़ी बंद करवा दी, मतलब अकबर ने उनसे मिलना जुलना बंद कर दिया।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मेवाड़, Haldighati Ke Yuddh Ke Baad Mewar
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद में महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ को अपना ठिकाना बनाया और मुगल सेना से छापामार तरीके से युद्ध करते रहे।
1576 से लेकर 1578 ईस्वी के बीच मुगल सेना ने महाराणा प्रताप की तलाश में कई बार मेवाड़ पर आक्रमण किये। मुगलों ने मेवाड़ मे कई जगह अपने थाने बना लिए।
1578 ईस्वी में मुगल सेनापति शाहबाज खाँ ने कुंभलगढ़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कुंभलगढ़ के साथ ही जावर, वागड़, छप्पन आदि पर भी मुगलों का अधिकार हो गया।
महाराणा प्रताप ने नए सिरे से युद्ध की रणनीति बनाकर अपनी छापामार युद्ध प्रणाली से मुगल थानों पर हमले करना जारी रखा। महाराणा प्रताप की इस नई रणनीति से मुगल सेना परेशान हो गई।
दिवेर का युद्ध, Diver Ka Yuddh
1582 ईस्वी में विजयदशमी के दिन महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित दिवेर गाँव के शाही थाने पर आक्रमण किया। दिवेर के इस मुगल थाने का मुखिया सुलतान खाँ था।
इस युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र कुँवर अमर सिंह ने सुलतान खाँ पर भाले से वार कर मार डाला। इसी युद्ध में महाराणा प्रताप ने तलवार के एक ही वार से बहलोल खाँ को उसके घोड़े सहित चीर डाला।
इस घटना के बाद मेवाड़ में यह कहावत बनी कि मेवाड़ में एक ही वार में सवार को घोड़े समेत काट दिया जाता है।
दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई। कर्नल टॉड ने इस युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने धीरे-धीरे सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार करना शुरू किया।
इस युद्ध के बाद अकबर भी मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया और मेवाड़ पर मुगल सेना के आक्रमण लगभग बंद हो गए।
दिवेर के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने 1585 ईस्वी तक कुंभलगढ़, जावर आदि पर दुबारा अधिकार कर लिया। साथ ही छप्पन के पहाड़ी क्षेत्र पर अधिकार करके चावंड को अपनी राजधानी बनाया।
चावंड में महाराणा प्रताप के अंतिम 12 वर्ष, Chawand Me Maharana Pratap Ke Antim 12 Varsh
महाराणा प्रताप ने 1585 ईस्वी में चावंड को अपनी राजधानी बनाने के बाद अपने जीवन के अंतिम 12 वर्ष शांति के साथ यहाँ पर ही गुजारे। इस शांति काल में साहित्य और कला का विकास हुआ।
चावंड मे गरगल नदी के किनारे महाराणा प्रताप के किले और महल के खंडहर आज भी मौजूद है।
किले के खंडहरों के पास ही चामुंडा माता का वह मंदिर भी मौजूद है जहाँ महाराणा प्रताप नियमित रूप से देवी की पूजा किया करते थे।
महाराणा प्रताप की छतरी (समाधि स्थल), Maharana Pratap Ki Chhatri (Samadhi Sthal)
माघ शुक्ल एकादशी विक्रम संवत 1653 (19 जनवरी 1597) को चावंड में महाराणा प्रताप की मृत्यु हुई।
चावंड से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर बान्डोली गाँव में तीन नदियों के संगम स्थल पर केजड़ झील के बीच में महाराणा प्रताप का दाह संस्कार किया गया।
महाराणा प्रताप के साथ माधो कँवर और रण कँवर सती हुई। केजड़ झील के बीच में दाह संस्कार स्थल पर महाराणा अमर सिंह ने 8 खम्भो की छतरी का निर्माण करवाया।
यह छतरी महाराणा प्रताप के स्मारक के रूप में आज भी लोगों की श्रद्धा का केंद्र बनी हुई है। वर्तमान में इसे प्रताप सागर त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है।
हल्दीघाटी के योद्धा महाराणा प्रताप की फोटो, Haldighati Ke Yoddha Maharana Pratap Ki Photos
लेखक
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
Tags:
Rajasthan-Ka-Itihas