यहाँ है 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता के सबूत - Ayad Museum Aahar Sabhyata Udaipur, इसमें उदयपुर के आयड़ में पुरानी सभ्यता और म्यूजियम की जानकारी दी गई है।
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उदयपुर को पर्यटक स्थल के साथ-साथ यहाँ के शूरवीर महाराणाओं एवं हजारो वर्ष प्राचीन आयड सभ्यता की वजह से सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है।
लगभग चार से पाँच हजार वर्ष पहले यह सभ्यता आयड़ या बेड़च नदी के किनारे पर विकसित होकर फली फूली इसलिए इसे आयड़ सभ्यता और बेड़च सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
आयड़ (Ayad) या आहर (Ahar) को प्राचीन काल में समय-समय पर ताम्बवती या ताम्रवती, अघाटपुर (Aghatpur), अघाटदुर्ग (Aghatdurg) आटपुर (Aitpoor), आनंदपुर (Anandpura), गंगोद्भव तीर्थ (Gangodbhav Tirth) जैसे कई नामों से जाना जाता रहा है।
वर्तमान में आयड़ नदी के पास वह टीला स्थित है जहाँ से खुदाई करने पर आयड़ सभ्यता के अवशेष मिले थे। पुरातत्व विभाग ने अब इस टीले की सुरक्षा के लिए इसके चारों तरफ दीवार बना दी है।
वर्तमान में इस क्षेत्र को धूलकोट के नाम से जाना जाता है और उदयपुर रेलवे स्टेशन से यहाँ की दूरी लगभग पाँच किलोमीटर है।
धूलकोट के इस पुरास्थल के उत्खनन से प्राप्त प्राचीन पुरावशेषों को संरक्षित एवं प्रदर्शित करने के लिए वर्ष 1960 में राजस्थान सरकार के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने एक पुरातत्व संग्रहालय का निर्माण करवाया।
संग्रहालय के बगल से ही मुख्य टीले पर जाने का रास्ता है। प्रवेश द्वार से अन्दर जाने पर कुछ आगे सामने दाँई तरफ खुदाई स्थल है जहाँ पर प्राचीन सोकपिट बना हुआ है। यह तत्कालीन समय में गंदे पानी को घरों से निकालने की वैज्ञानिक पद्धति को प्रदर्शित करता है।
वर्ष 1951-52 में स्वर्गीय अक्षय कीर्ति व्यास द्वारा इस टीले का उत्खनन किया गया। इसके पश्चात स्वर्गीय रमेश चन्द्र अग्रवाल ने भी इस पुरास्थल पर वर्ष 1954-55 एवं वर्ष 1955-56 में उत्खनन कार्य किया।
वर्ष 1960-61 में पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग और पुणे के डेकन कॉलेज के संयुक्त तत्वावधान में यहाँ के सांस्कृतिक अनुक्रम को उद्घाटित करने का कार्य किया गया।
इस उत्खनन कार्य का नेतृत्व स्वर्गीय डॉ एच डी संकालिया द्वारा किया गया। यहाँ से प्राप्त सफ़ेद रंग से चित्रित काले एवं लाल रंग के पात्रों को उनकी विशेष बनावट व तकनीक के आधार पर प्रथम बार इस संस्कृति को आहड़ संस्कृति का नाम दिया गया।
आहड़ संस्कृति के निर्माता 5000 ईस्वी पूर्व से 1500 ईस्वी पूर्व के दौरान अरावली के इस क्षेत्र में विचरण कर रहे थे। वे लोग इस क्षेत्र के प्रथम किसान थे।
मेवाड़ क्षेत्र में 80 से अधिक आहड़ बनास संस्कृति के पुरास्थल खोजे गए हैं जिनमे से अधिकांश पुरास्थल गंभीरी, कोठारी, बनास, बेडच, खारी एवं इनकी सहायक नदियों के किनारे पर स्थित हैं। इन पुरास्थलों में से आहड़, बालाथल एवं गिलुण्ड का विस्तृत तौर पर उत्खनन किया गया है।
आहड़ बनास संस्कृति को विशेष प्रकार के मृद्पात्र कृष्ण लोहित पात्रों के आधार पर अलग किया गया है। अन्य प्रकार के पात्रों में धूसरित पात्र, लाल पात्र, लाल रंग की परत चढ़े पात्र सम्मिलित किये जा सकते हैं।
पकी मिट्टी से बने पुरावशेषों में गोल चक्राकार गोटियाँ, खिलौने बैल, मणके एवं विभिन्न आकार प्रकार की गोटियाँ भी सम्मिलित है।
यहाँ के सांस्कृतिक अवशेषों में पकी एवं कच्ची मिट्टी से निर्मित अनेक वस्तुएँ जैसे खिलौने, गाड़ियों के पहिये, विभिन्न प्रकार के संग्रह पात्र, बर्तन बनाने के दौरान उपयोग में लिए जाने वाले उपकरण, बर्तन, कर्णफूल, पशु एवं मानव आकृतियाँ, मिट्टी की मुहरें, पूजा के पात्र, शंख एवं कांचली मिट्टी से बने मणके, चूड़ियों के टुकड़े, दीपक एवं पहिये उल्लेखनीय हैं।
गोल पतले आकार के साथ-साथ मृदंग के आकार के फैयांस के मणके भी मिले हैं। विभिन प्रकार के मणके तत्कालीन मानव की रचनात्मकता को दर्शाते हैं।
इन पुरावशेषों में पकी मिट्टी से बनी गोल चकरी, खिलोनों के टुकड़े, उपयोग में लिए हुए बर्तनों के टुकड़े, बर्तनों पर बनाने वाले के निशान आदि प्राप्त हुए हैं।
यहाँ पर बड़ी भारी संख्या में पकी मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो संभवतः तत्कालीन समुदाय द्वारा घरेलू एवं धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उपयोग में ली जाती होंगी।
आहड़ बनास परिसर के ताम्र प्रस्तर युगीन मृद्पात्रों को अध्ययन के आधार पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग-अलग वर्गीकृत किया गया है। उत्पादन की इस तकनीक में मिट्टी की तैयारी के चरण से शुरू होने वाली विनिर्माण प्रक्रिया शामिल है।
प्रत्येक समूह को सतही अध्ययन के आधार पर आगे मोटे लाल बर्तन, मोटे लाल चिकने बर्तन, पतले लाल चिकने बर्तन, सफ़ेद चित्रित काले एवं लाल बर्तन आदि में वर्गीकृत किया जाता है। प्रत्येक उप समूह को तब प्रकृति के आधार पर ठीक, मध्यम या मोटे प्रकार में सम्मिलित किया जाता है।
मृद्पात्रों को वर्तमान में प्रचलित उत्पादन की तकनीक के आधार पर लाल बर्तन, भूरे एवं काले बर्तन, काले एवं लाल रंग के बर्तन और मटमैले रंग के बर्तन आदि चार भागों में वर्गीकृत किया गया है।
प्रस्तर से निर्मित वस्तुओं में कार्नेलियन एवं अन्य अर्ध-बहुमूल्यवान पत्थरों जैसे क्रिस्टल, लापीस ताजुली, पत्थर की गेंदे, विभिन्न प्रकार के कूटने पीसने के पत्थर, बर्तनों के टुकड़े, विभिन्न प्रकार के घिसने वाले पत्थर तथा अन्य प्रकार के पत्थर भी प्राप्त हुए हैं।
धातु निर्मित पुरावशेषों में चूड़ियाँ, चाकू, पत्ती, सिक्के, छेनी, कृषि के उपकरण, नुकीली कीलें, अंगूठियाँ आदि सम्मिलित हैं।
इसके अलावा ताम्र निर्मित अवशेषों में अंगूठियाँ, चूड़ियाँ, कुल्हाड़ियाँ, चाकू एवं ताम्बे के साथ-साथ ताम्र धातु शोधन के मलबे भी प्राप्त हुए हैं जो तत्कालीन ताम्र धात्विकी पर प्रकाश डालते हैं।
शंख निर्मित पुरावशेषों में चूड़ियों के टुकड़े, मणके, कौड़ी, कानों की लटकन एवं उपयोग में लिए हुए शंख शामिल हैं।
अस्थि से बने पुरावशेषों में अस्थि से बनी कीलें एवं अस्थियाँ शामिल हैं।
कला के उदय के प्रारंभिक प्रमाणों को प्रागैतिहासिक काल में रंगों के माध्यम से निर्मित रेखीय चित्रणों में देखा जा सकता है। ये चित्र तत्कालीन कला एवं संस्कृति के सम्बन्ध में परिणाम निकलने में अति सहायक सिद्ध हुए हैं।
कला के स्वरूप को दृश्य, श्रवण या कलाकृतियों के प्रदर्शन, कल्पनाशीलता या तकनीकी कौशल, उनकी सुन्दरता या भावनात्मक शक्ति के लिए सराहना का इरादा व्यक्त करने में मानव गतिविधियों की एक विविध श्रंखला के अंतर्गत सम्मिलित किया जा सकता है।
पुरातात्विक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि मिट्टी की वस्तुओं और मूर्तियों का निर्माण मानव द्वारा पुरापाषाण काल से शुरू कर दिया गया था।
चिकनी मिट्टी अपने लचीले स्वभाव के कारण इस प्रकार की वस्तुओं के निर्माण हेतु तत्कालीन मानव की पसंदीदा सामग्री थी। कच्ची मिट्टी को किसी भी आकार-प्रकार में ढालकर, आग में पकाकर मजबूत स्वरूप प्रदान किया जा सकता है।
आदिम मनुष्य की कलात्मक वृत्ति ने उसे दृश्य वस्तुओं के मूर्त रूप बनाने को प्रेरित किया। मिट्टी की प्रचुरता होने के कारण मानव ने इसे अपने कार्य हेतु चुना।
इस प्रकार सभी सभ्यताओं की रचना का प्रथम माध्यम मिट्टी थी जिससे मानव ने अपनी कलात्मक वस्तुओं का निर्माण किया।
राजस्थान में नाना प्रकार के पत्थरों जैसे संगमरमर, चूना पत्थर, बलुआ पत्थर, विभिन्न प्रकार के बिल्लौरी पत्थर (क्वार्टज पत्थर) आदि का भंडार होने के कारण इनका बहुत से कार्यों में इस्तेमाल होता रहा है जिनमे भवन निर्माण एवं मूर्तिकला प्रमुख है।
उदयपुर का यह संग्रहालय समय के साथ विभिन्न प्रकार के पुरावशेषों से समृद्ध होता गया। इस संग्रहालय में विभिन्न प्रकार के प्रागैतिहासिक उपकरण, विभिन्न प्रकार के मृद्पात्र, आहड़ के निवासियों की सांस्कृतिक सामग्री जैसे लघु पाषाण उपकरण, ताम्र निर्मित सामग्री, मणके, पकी मिट्टी की मूर्तियाँ एवं तृतीय सदी ईस्वी से द्वितीय सदी ईस्वी के स्तर की ऐतिहासिक सामग्री भी प्रदर्शित की गई है।
इस संग्रहालय में विभिन्न प्रकार की 7-8वीं सदी तक की मूर्तियों का संग्रह भी है। इन मूर्तियों में आहड़ एवं दक्षिण पूर्वी राजस्थान से प्राप्त विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ शामिल हैं।
संग्रहालय में लघु चित्र भी प्रदर्शित किये गए हैं जो तत्कालीन लोगों की कला एवं सृजनात्मकता के बारे में बताते हैं। संग्रहालय में अस्त्र शस्त्रों को भी प्रदर्शित किया गया है।
इस संग्रहालय में 8वीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक की प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई है। अगर आप उदयपुर भ्रमण के लिए जा रहे हैं तो आपको इस संग्रहालय में जाकर इन सभी धरोहरों को करीब से जानना चाहिए।
आयड़ संग्रहालय की मैप लोकेशन, Ayad Museum Ki Map Location
आयड़ संग्रहालय की फोटो, Ayad Museum Ki Photos
लेखक
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}