इस मंदिर में है श्रीकृष्ण की लाल पत्थर की मूर्ति - Dwarkadhish Mandir Kankroli Rajsamand, इसमें द्वारकाधीश मंदिर यानी कांकरोली मंदिर की जानकारी दी है।
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उदयपुर शहर से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर राजसमन्द शहर का जुड़वा क़स्बा कांकरोली स्थित है। इस कस्बे में राजसमन्द झील के किनारे पर द्वारकाधीश मंदिर का मंदिर स्थित है।
इस मंदिर को द्वारकाधीश मंदिर के अलावा कांकरोली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर भगवान कृष्ण अपने सुन्दर स्वरुप में विराजते हैं।
कांकरोली के मुख्य बस स्टैंड से मंदिर की दूरी लगभग एक किलोमीटर है। मुखर्जी चौक से सँकरा रास्ता द्वारकाधीश मंदिर की तरफ जाता है।
मंदिर के बाहरी प्रवेश द्वार से पहले पत्थर का एक सुन्दर तोरण द्वार बना हुआ है जिसके अन्दर जाने पर वाहनों के लिए पार्किंग बनी हुई है।
मुख्य मंदिर एक सुंदर हवेली के रूप में बना हुआ है जिसे द्वारकाधीश की हवेली के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर की ध्वझा दूर से ही नजर आ जाती है।
इसके आगे मुख्य मंदिर के लिए रास्ता बना हुआ है जिसमे प्रवेश करने के बाद एक चौक दिखाई देता है। इस चौक से द्वारकाधीश के दर्शनों के लिए जाया जाता है। मुख्य गर्भगृह में द्वारकाधीश की मूर्ति स्थापित है जिसे निधि के नाम से जाना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि महाराणा राज सिंह के समय 1670 ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की लाल पत्थर की यह मूर्ति मथुरा से आई थी जिसे राजसमन्द झील के किनारे एक छोटे मंदिर में स्थापित कर दिया गया।
बाद में राजसमन्द झील के निर्माण के साथ ही 1676 ईस्वी में झील के किनारे पर मंदिर बनवाया था जो बाद में झील के जलस्तर बढ़ जाने की वजह से पानी में डूब गया।
वर्तमान मंदिर का निर्माण 1719 ईस्वी में गोस्वामी गिरधर के समय में हुआ था इसलिए इसे गिरधर गढ़ के नाम से भी जाना जाता है।
यह मंदिर एक भव्य हवेलीनुमा या महलनुमा आकृति में बना हुआ है जिस पर मेवाड़ी कला का प्रभाव साफ़ झलकता है।
द्वारकाधीश के मंदिर में कई अन्य दर्शनीय स्थल हैं जिनमे मथुराधीश, दाऊजी, गोवर्धननाथ, लड्डू गोपाल, परिकृमा, मंदिर का समयसूचक घंटा, मंदिर का बगीचा, पुस्तकालय आदि।
समयसूचक घंटा बड़े आकार का है जो हर घंटे में बजाया जाता है और इसकी आवाज काफी दूर तक सुनाई देती है। यहाँ के पुस्तकालय में काफी पुरानी किताबे उपलब्ध हैं।
मेवाड़ के चार धामों में से एक यह मंदिर वैष्णव और वल्लभ संप्रदायों से संबंधित है और पुष्टिमार्ग के प्रमुख केन्द्रों में से एक है। अब हम आपको यह बताते हैं कि कांकरोली में द्वारकाधीश पीठ की स्थापना कैसे हुई और इसका वल्लभ सम्प्रदाय से क्या सम्बन्ध है?
मेवाड़ में वल्लभ सम्प्रदाय की स्थापना महाप्रभु वल्लभाचार्य ने की थी जिसकी ईष्ट और प्रधान पीठ नाथद्वारा में श्रीनाथजी हैं।
वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने श्रीनाथजी के अतिरिक्त सात अन्य पीठों की भी स्थापना की थी जिनमें से तीसरी पीठ कांकरोली में द्वारकाधीश है।
गोस्वामी विट्ठलनाथ के समय विक्रम संवत 1626 में गोकुल पुष्टिमार्ग का केंद्र बन गया था। इनके बाद इनके पुत्र बालकृष्ण ने संवत 1642 में यहाँ पर द्वारकाधीश पीठ की स्थापना की।
गोस्वामी बालकृष्ण के पोत्र गोस्वामी गिरधर ने अपने कोई संतान ना होने की वजह से अपने कुल भाई के पुत्र बृज भूषण को गोद लिया।
पारिवारिक उथल-पुथल की वजह से गोस्वामी बृज भूषण ने संवत 1720 में अहमदाबाद के रायपुर मोहल्ले में द्वारकाधीश को ले जाकर मंदिर की स्थापना की।
पारिवारिक विवाद जारी रहने की वजह से संवत 1727 (1770 ईस्वी) के अंत में अहमदाबाद से इस तीसरी पीठ को कांकरोली के आसोटिया गाँव में राजसमन्द झील के किनारे पर स्थापित किया गया।
संवत 1756 में आसोटिया गाँव में बाढ़ आने की वजह से द्वारकाधीश को पास की मगरी पर ले जाया गया और जहाँ पर इन्होने नीम के पेड़ के नीचे तीन दिन बिताये।
अब इस मगरी को देवल मगरी के नाम से जाना जाता है और जिस नीम के पेड़ के नीचे प्रभु ने तीन दिन बिताये, उस नीम की लकड़ी से प्रभु की हटरी का काम लिया जाता है।
इस प्रकार संवत 1727 से संवत 1776 तक कुल 49 वर्षों तक द्वारकाधीश की सेवा पूजा आसोटिया गाँव में होती रही।
बाद में गोस्वामी बृज भूषण के पुत्र गिरधर द्वितीय के समय संवत 1776 में द्वारकाधीश को राजसमन्द झील के तट पर बने नए मंदिर में स्थापित किया गया। गिरधर जी के समय मूर्ति प्रतिष्ठित होने की वजह से इस मंदिर को गिरधर गढ़ के नाम से जाना जाने लगा।
द्वारकाधीश के मंदिर में जन्माष्टमी, अन्नकूट, फाग आदि त्यौहार तो मनाये ही जाते हैं लेकिन यहाँ पर होली का उत्सव विशेष प्रकार से मनाया जाता है।
होली के दिन यहाँ पर अग्नि जलाकर विशेष दर्शन करवाए जाते हैं जिसे राल के दर्शन कहा जाता है। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वल्लभ सम्प्रदाय की सातों पीठों में से केवल कांकरोली के द्वारिकाधीश मंदिर में ही फाल्गुन मास में राल के दर्शन होते हैं।
द्वारकाधीश मंदिर में राल दर्शन की परम्परा पुरातन काल से चली आ रही है। राल दर्शन, कृष्ण की बाल लीलाओं में से एक भाव को प्रदर्शित करता है। ठाकुरजी ने इन अलग-अलग बाल लीलाओं में सर्दी कम करने के भाव को राल जलाकर दर्शाया था।
साथ ही राल जलाने का एक वैज्ञानिक प्रभाव भी है। दरअसल फाल्गुन मास के बदलते मौसम में बीमारियाँ पैदा करने वाले कीटाणु बढ़ जाते हैं जिनकी वजह से बहुत से रोग पैदा होने लगते हैं।
इस समय राल नामक औषधि जलाने से ये कीटाणु समाप्त हो जाते हैं और बीमारियाँ नहीं फैलती है, तो हम कह सकते हैं कि राल दर्शन की वजह से मंदिर परिसर को कीटाणुओं से मुक्त किया जाता है।
अगर आप प्राचीन धार्मिक स्थलों पर आस्था के साथ-साथ पर्यटन के लिए जाना चाहते हैं तो आपको राजसमन्द झील के किनारे पर स्थित द्वारकाधीश मंदिर में अवश्य जाना चाहिए।
द्वारकाधीश मंदिर की मैप लोकेशन, Dwarkadhish Mandir Ki Map Location
द्वारकाधीश मंदिर की फोटो, Dwarkadhish Mandir Ki Photos
लेखक
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}